हाल ही में देश की राजधानी दिल्ली के बुराड़ी के भीड़ भरे इलाके में दिन−दहाड़े बीच सड़क पर 21 साल की एक युवती को 34 साल के एक सिरफिरे आशिक ने ढाई मिनट में कैंची से बाइस बार गोद डाला, इस रोंगटे खड़ी कर देने वाली दर्दनाक, वीभत्स, डरावनी घटना को देखकर देश की संवेदना एक बार फिर थर्रा गई है, खौफ व्याप्त हो गया है और हर कोई स्वयं को असुरक्षित मान रहा है। आरोपी सेवानिवृत्त पुलिस सब−इंस्पेक्टर का बेटा है और एक कम्प्यूटर संस्थान चलाता है। युवती ने साल भर पहले इसके संस्थान से प्रशिक्षण लिया था और फिलहाल एक निजी स्कूल में शिक्षिका थी। हत्यारे का दावा है कि वह युवती से प्यार करता था, उससे शादी करना चाहता था। युवती ने शादी का प्रस्ताव ठुकरा दिया, तो भी उसका पीछा करना उसने नहीं छोड़ा। जब आरोपी को पता चला कि युवती की शादी किसी ओर से तय हो गई है, तब उसने हत्या की योजना बनाई। ऐसी घटनाएं देश भर में बढ़ रही हैं, दिल्ली में बाकी जगहों से कुछ ज्यादा ही इन घटनाओं का बढ़ना गंभीर चिन्ता का विषय है। क्या हो गया है लोगों को, सोच ही बदल चुकी है। जो चीज अन्तिम हुआ करती थी वह प्रथम हो गई। मनुष्य को मार देना, कितना आसान हो गया है। मनुष्य जीवन अमूल्य है। निरपराध मारा जा रहा है। मनुष्य नहीं मर रहा है, मनुष्यता मर रही है। विशेषतः महिलाओं पर हो रहे इस तरह के अत्याचार, हिंसक वार और स्टॉकिंग की घटनाएं समाज के संवेदनाशून्य और क्रूर होते जाने की स्थिति को ही दर्शाता है। लगातार समाज के बीमार मन एवं बीमार समाज की स्थितियां नारी के सम्मुख चुनौती खड़ी कर रही हैं। नारी का यह बलिदान क्या केवल एक जीवन का अंत भर है? उन्माद एवं कुत्सित वासना के आगे असहाय निरुपाय खड़ी नारी पूछती है− इस जिस्म के लिये कब तक नारी संहार होगा? उसकी मांग के सिन्दूर, हाथ की राखी और आंचल के दूध का क्या होगा?
अपने प्यार को जबरन जाहिर करने या अपनी कुत्सित इच्छा थोपने में नाकाम सिरफिरों द्वारा महिलाओं और युवतियों की हत्या या उन्हें जख्मी करने की वारदातें लगातार बढ़ती जा रही हैं। ऐसे मामलों में अपराधियों की क्रूरता तो घोर चिंताजनक है ही, संवेदना से रिक्त होते समाज का व्यवहार भी विचलित करता है। एक अन्य घटना में दिल्ली के इंदरपुरी में रहने वाली एक शादीशुदा महिला की हत्या कर दी गई। पता चला कि आरोपी छह साल से महिला का पीछा कर रहा था। दूसरी घटना मंगोलपुरी इलाके में हुई, जहां बातचीत बंद करने से बौखलाए एक युवक ने पड़ोस में रहने वाली युवती के घर जाकर उसे बालकनी से नीचे फेंक दिया। पिछले माह भी दिल्ली में ही दो लड़कों ने नौवीं कक्षा की एक छात्रा के साथ गैंगरेप करने के बाद उसका मर्डर कर दिया। दोनों लड़के 6 माह से लड़की का पीछा कर रहे थे। इससे पहले कानपुर में चौदह साल की एक लड़की ने इसलिये आत्महत्या कर ली थी, क्योंकि उसी के स्कूल का एक अध्यापक स्कूटर से रोज उसका पीछा करता था। हरियाणा के रोहतक की दो छात्राओं ने भी स्टॉकिंग से परेशान होकर जहर खाकर जीवनलीला समाप्त कर दी। मुम्बई में फेसबुक फ्रेंड की स्टॉकिंग से परेशान होकर एक बालिका ने जान दे दी।
देश और दुनिया के स्तर पर देखा जाए तो किसी भी देश का, किसी भी दिन का अखबार उठाकर देख लें, महिला अपराध से संबंधित समाचार प्रमुखता से मिलेंगे। कहीं झपटमार लोगों द्वारा महिलाओं के आभूषण छीने जा रहे हैं तो कहीं राह चलते उनके साथ दुर्व्यवहार हो रहा है। कहीं कार्यालय के सहयोगी, बॉस व अड़ोस−पड़ोस के लोग उनका गलत रूप में शोषण कर रहे हैं तो कहीं बलात्कार की घटना घटित हो रही है, कहीं अपनी अवांछित इच्छाएं एवं कुत्सित भावनाएं थोपने के लिये स्टॉकिंग किया जाता है। कहीं असंतोष, विद्रोह या आक्रोश से भड़के व्यक्ति तंदूर कांड जैसे हत्याकांड करने से और कहीं अपनी वासनाओं के लिये निर्भया को गैंगरेप का शिकार बनाने से भी नहीं चूकते। महिला अपराध संबंधी कितनी ही कुत्सित, घृणित एवं भर्त्सना के योग्य घटनाएं आज हम अपने आसपास के परिवेश में देखते हैं। वैश्विक स्तर पर यह आंकड़ा कितना बड़ा होगा, आकलन कर पाना भी कठिन है। सिर्फ महिलाओं के साथ ही नहीं, स्कूल में पढ़ने वाली दस−बारह साल की कन्याओं के साथ भी ऐसी घटनाएं सुनने में आती हैं, जिसकी कल्पना कर पाना भी असंभव है। खास तौर पर कॉलेज में एवं उच्च शिक्षा प्राप्त करने वाली छात्राएं तो आज इतनी चिंतनीय स्थिति में पहुंच गई हैं, जहां रक्षक ही भक्षक के रूप में दिखाई पड़ते हैं। वे इतनी असुरक्षित और इतनी विवश हैं कि कोई भी ऊंची−नीची बात हो जाने के बाद उनके पास चुप्पी साध लेने के सिवाय और कोई चारा नहीं है। परिस्थितियों से प्रताड़ित होकर कुछ तो आत्महत्या तक कर लेती हैं और कुछ को मार दिया जाता है।
सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ. मृदुला सिन्हा ने महिलाओं की असुरक्षा के संदर्भ में एक कटु सत्य को रेखांकित किया है− ‘अनपढ़ या कम पढ़ी−लिखी महिलाएं ऐसे हादसों का प्रतिकार करती हैं, किन्तु पढ़ी−लिखी लड़कियां मौन रह जाती हैं।’ सचमुच यह एक चौंका देने वाला सत्य है। पढ़ी−लिखी महिला इस प्रकार के किसी हादसे का शिकार होने के बाद यह चिंतन करती है कि प्रतिकार करने से उसकी बदनामी होगी, उसके पारिवारिक रिश्तों पर असर पड़ेगा, उसका कैरियर चौपट हो जाएगा, आगे जाकर उसको कोई विशेष अवसर नहीं मिल सकेगा, उसके लिए विकास का द्वार बंद हो जाएगा। वस्तुतः एक महिला प्रकृति से तो कमजोर है ही, शक्ति से भी इतनी कमजोर है कि वह अपनी मानसिक सोच को भी उसी के अनुरूप ढाल लेती है। बुराड़ी की ताजा घटना और स्टॉकिंग की बढ़ रही घटनाएं− समाज में महिलाओं और युवतियों की इच्छाओं को सम्मान न देने की दूषित भावना की उपज हैं। साफ है कि इनमें आरोपी युवक, युवतियों के प्रति एक सनकभरा आकर्षण रखते थे और उन्हें अपनी हवस का शिकार बनाना चाहते थे। इस हवस को वे कहीं प्रेम तो कहीं शादी−प्रस्ताव का नाम देकर जायज ठहराने की कोशिश कर रहे थे। लेकिन जब युवतियों ने उनकी मनमर्जी को मानने से इनकार किया तो वे हिंसक हो उठे। बदले में उन बदमिजाज युवकों ने वही किया, जो एक सनकी अपराधी करता है।
इसमें कानून−व्यवस्था के रक्षकों का भी बड़ा दोष है। निर्भया कांड के बाद 2013 में बने कानून के तहत किसी लड़की का पीछा करना अपराध है। फिर भी आए दिन ऐसी घटनाएं हो रही हैं, लेकिन पुलिस तंत्र या कानून का खौफ अपराधियों के हौसले को कम नहीं कर पाता है। क्यों? क्या ऐसे अपराध सिर्फ समाजशास्त्र के ही विषय हैं? कानून−व्यवस्था आखिर तब किसे कहते हैं? कानून की छूट या कानून की बंदिश ने कभी सुधार नहीं किया। कानून की अपनी सीमा है, जो कभी जड़ तक नहीं पहुंचती और सुधार कभी ऊपर से नहीं होता उसकी जड़ तक पहुंचना पड़ता है। एक बड़ा चिंतनीय पहलू समाज की संवेदनहीनता से भी जुड़ा है। ऐसी घटनाओं के वक्त वहां मौजूद लोगों के खामोश तमाशाई बने रहने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है। बुराड़ी की घटना में एक व्यक्ति आगे बढ़ता है, फिर पीछे लौट जाता है। जबकि वहां ढेर सारे लोग मौजूद थे। उनमें से अगर दो−चार और लोगों ने हिम्मत बटोरी होती तो शायद युवती की जान बचाई जा सकती थी। आखिर हमारा समाज किधर जा रहा है।
आजीवन शोषण, दमन, अत्याचार और अपमान की शिकार रही भारतीय नारी को अब और नये−नये तरीकों से कब तक जहर के घूंट पीने को विवश होना होगा। अत्यंत विवशता और निरीहता से देख रही है वह यह क्रूर अपमान, यह वीभत्स अनादर, यह जानलेवा अत्याचार। कब टूटेगी हमारी यह चुप्पी? कब टूटेगी हमारी यह मूर्च्छा? कब बदलेगी हमारी सोच। यह सब हमारे बदलने पर निर्भर करता है। हमें एक बात बहुत ईमानदारी से स्वीकारनी है कि गलत रास्तों पर चलकर कभी सही नहीं हुआ जा सकता। पुरुष क्या कर रहा है, क्या करता रहा है, उसे कहने से हम अपने दोषों को जस्टिफाई नहीं कर सकते। और न ही हमें करना चाहिए। यदि हम सच में नारी के अस्तित्व एवं अस्मिता को सम्मान देना चाहते हैं तो! ईमानदार स्वीकारोक्ति और पड़ताल के बिना हमारी दुनिया में न कोई क्रांति संभव है, न प्रतिक्रांति।