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वैष्णो देवी धामः आस्था की यात्रा

यह कोई धर्मिक नहीं बल्कि अविचल, स्थिर आस्था की यात्रा है जिसमें लोग मंदिरों की नगरी के नाम से प्रसिद्ध जम्मू शहर के उत्तर-पूर्व में 55 किमी की दूरी तय करके पवित्र त्रिकुटा पहाडि़यों पर स्थित वैष्णो देवी की पावन गुफा के दर्शनार्थ आते हैं। इस आस्था की यात्रा पर आने वालों के लिए तो यह मानसिक संतुष्टि देने वाला अनुभव होता है। अगर किसी धर्मस्थल पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या ही एक पैमाना हो माप का तो उत्तर भारत में श्रद्धालुओं के प्रसिद्ध केंद्र के रूप में वैष्णो देवी की गुफा का नाम सूची में सबसे ऊपर होना चाहिए। वैसे इस बात पर कोई भी विश्वास नहीं करता है कि वर्ष 1950 में जिस पवित्र गुफा के दर्शनार्थ मात्र 3000 श्रद्धालु आया करते थे इनकी संख्या वर्ष 2012 में सवा करोड़ के आंकड़े को भी पार कर गई। सच्चाई का एक पहलू यह भी है कि 30 अगस्त 1986 में राज्य के तत्कालीन राज्यपाल श्री जगमोहन द्वारा इस तीर्थस्थल को सरकारी एकाधिकार में लेने तथा श्री माता वैष्णो देवी स्थापन बोर्ड के गठन के बाद ही आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में व्याप्क वृद्धि हुई थी। इसके बाद तो यात्रा का रूप पूरी तरह से ही बदल गया। हालांकि इस धर्मस्थल की उत्पत्ति के सही दिन व वर्ष की जानकारी किसी को नहीं है फिर भी सदियों से यह गुफा लोगों के लिए धार्मिक तथा मानसिक शांति प्राप्ति का एक मुख्य स्थान रही है। आरंभ में तो इसे जम्मू क्षेत्र के कुछ इलाकों में ही लोग जानते थे जबकि अब तो माता का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए विदेशों से भी लोग आते हैं। त्रिकुटा पहाडि़यों में स्थित इस पवित्र गुफा की कथा जम्मू प्रदेश के एक एतिहासिक किसान बाबा जित्तो, जो खुद भी माता वैष्णो देवी के एक अनन्य भक्त के रूप में जाने जाते थे, से जुड़ी हुई लोक कथाओं में भी सुनाई जाती है। हमेशा बाबा जित्तो की गाथाओं में इस पवित्र गुफा का संदर्भ दिया जाता है।

वैसे इस तीर्थस्थल के साथ अनेकों कथाएं जुड़ी हुई हैं। लेकिन असल कथा या इतिहास आज तक मालूम नहीं हो पाया है। एक प्रसिद्ध कथा के अनुसार, वैष्णो देवी जो एक दिव्य लड़की के रूप में जानी जाती थीं, जम्मू के पास कोट कंडोली में पैदा हुई थीं जहां एक सदियों पुराना मंदिर आज भी विद्यमान है। इस मंदिर को वहीं पर बनाया गया है जहां उन्होंने पवित्रता प्राप्त करने से पहले ध्यान लगाया था। लेकिन कुछेक पौराणिक किताबों में ही इस धर्मिक स्थल व इस स्थान का वर्णन मिलता है। जबकि त्रिकुटा पहाडि़यों के लोकगायक माता के बारे में सदियों से गाथाएं गाते रहे हैं। हालांकि भूगर्भशास्त्री कहते हैं कि वैष्णो देवी की गुफा कई मिलियन वर्ष पुरानी है। उन्होंने यह निष्कर्ष वहां की चट्टानों का अध्ययन करने के उपरांत निकाला है। जबकि ब्रह्मर्षियों-पुलस्तू तथा धेमया-के कथनानुसार जम्मू (जो पहले जाम्बूलोचन व फिर जम्बू के नाम से जाना जाता था) भारत के धर्मिक स्थानों में से एक महत्वपूर्ण गिना जाता है। पुष्कर, जो प्रथम स्थान पर आता है, के उपरांत इसका क्रम दूसरा है।

आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि महाकाव्य महाभारत में जम्मू के साथ वैष्णो देवी के नाम की चर्चा कहीं नहीं आती है मगर महाकाव्य में अन्य स्थानों पर इसका संदर्भ अवश्य आता है। बताया जाता है कि जब कुरुक्षेत्र के जंग के मैदान में पांडवों व कौरवों की सेनाएं आमने-सामने एक-दूसरे से भिड़ने के लिए आ जुटी थीं तो तब भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन से वैष्णो देवी का ध्यान करके विजय की प्राप्ति के लिए उनका आशीर्वाद लेने के लिए कहा था। त्रिकुटा पहाडि़यां, जो वैष्णो देवी के निवास के रूप में जानी जाती हैं, ऋगवेद तथा वैदिक काल के अन्य ग्रंथों में उनका वर्णन अवश्य आता है। एक अन्य पौराणिक कथा के अनुसार वैष्णो देवी भगवान विष्णु की परमभक्त एवं उपासक थीं और उन्होंने कौमार्यव्रत धारण कर रखा था। भैरोंनाथ तांत्रिक उनकी ओर आकर्षित था और उन्हें प्रत्यक्ष देखने का अभिलाषी था। उसने अपनी तंत्र शक्ति के द्वारा देश कि देवी माता त्रिकुटा पर्वत की ओर जा रही थीं। तांत्रिक ने उनका पीछा किया। बाण गंगा नामक स्थान पर जब माता को प्यास लगी तो उन्होंने धरती को अपने बाण से बेंध दिया और वहां से जल की धारा निकल पड़ी। जिस स्थान पर उन्होंने विश्राम किया वहीं उनके पदचिन्ह आज भी मौजूद बताए जाते हैं।

इस स्थान को चरण पादुका कहते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार इसके उपरांत माता अर्द्धक्ंवारी नामक स्थान पर एक गुफा में तपस्या करने हेतु विलीन हो गयीं। इसलिए इस गुफा का नाम गर्भजून के नाम से प्रचलित है। जैसे ही तांत्रिक देवी मां को ढूंढते-ढूंढते गुफा तक आया, माता ने अपने त्रिशुल से गुफा को तोड़कर बाहर निकलने का मार्ग बना लिया और दरबार स्थित पवित्र गुफा की ओर अग्रसर हुईं। यहां आकर माता ने महाकाली का रूप धरण कर लिया और अंततोगत्वा अपने त्रिशूल के वार से भैरोंनाथ का शीश काट कर इतने वेग से फैंका कि वह दूर पहाड़ पर जा गिरा। जिस स्थान पर भैरोंनाथ का सिर गिरा वहीं आज भैरों का मंदिर स्थित है। कथा के अनुसार गुफा के द्वार पर स्थित चट्टान भैरों का धड़ है जो पाषाण बन गया है। करूणामयी माता ने भैरोंनाथ को उसके अंतिम समय में क्षमा प्रदान की और यह वरदान दिया कि आने वाले समय में जो भी भक्त मेरे दर्शनार्थ आएगा उसकी यात्रा तभी पूरी होगी जब वह वापसी पर भैंरों के भी दर्शन करेगा। माता की उत्पत्ति की कथाओं का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हो जाता है।

एक कथा ऐसी भी है जो अन्य प्रचलित कथाओं से बिल्कुल अलग है। इस कथनानुसार, कटड़ा के नजदीक के हंसाली गांव में रहने वाले ब्राह्मण श्रीधर ने इस गुफा की खोज की थी जिसे माता ने एक बच्ची के रूप में दर्शन देकर उसे इस गुफा के बारे में जानकारी दी थी। फिर इसके उपरांत माता की गुफा की यात्रा आरंभ हो गई। बताया जाता है कि यह कथा करीब 700 वर्ष पुरानी है। यहाँ आकर जिनकी मुरादें पूरी होती हैं वे पुनः आते हैं और अन्य को भी साथ में लाते हैं। करीब आठ सदियों पुरानी इस गुफा के दर्शनों के लिए आने वाले दर्शनार्थियों की संख्या में कोई कमी नहीं आई है बल्कि दिनोंदिन उसमें वृद्धि ही होती जा रही है और आस्था रखने वाले शायद ही आज तक कभी निराश हुए हों।

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