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जानिए क्या कहा था इंदिरा गाँधी ने अपने आखिरी भाषण में
अपनी मौत से ठीक चार दिन पहले यानी 27 अक्टूबर को इंदिरा राहुल प्रियंका के साथ कश्मीर के दौरे पर चली गईं। 27 को बच्चों के साथ ही रहीं। अगले दिन कश्मीरी शैव संत लक्ष्मणजू के आश्रम और कुलदेवी शारिका मां के मंदिर के साथ साथ इंदिरा हजरत सुल्तानु अर-ए-सिन की दरगाह पर भी गईं।
नई दिल्ली। अपनी मौत से ठीक चार दिन पहले यानी 27 अक्टूबर को इंदिरा राहुल-प्रियंका के साथ कश्मीर के दौरे पर चली गईं थीं। अगले दिन कश्मीरी शैव संत लक्ष्मणजू के आश्रम और कुलदेवी शारिका मां के मंदिर के साथ साथ इंदिरा हजरत सुल्तानु अर-ए-सिन की दरगाह पर भी गईं। वहां नीचे आते वक्त वो फिसल भी गईं, लेकिन चोट नहीं आई। अगले दिन इंदिरा भुवनेश्वर में थीं और बच्चे दिल्ली में।
29 अक्टूबर को उड़ीसा सीएम ने इंदिरा को हाथ से बुनी साडियां तोहफे में दीं। कुछ मुलाकातें और कुछ कार्यक्रमों में हिस्सा लिया लेकिन अगला दिन इंदिरा गांधी के लिए अपनी जिंदगी का वो आखिरी दिन था जिसको उन्होंने पूरा जिया, यानी रात तक, वो दिन था 30 अक्टूबर। 30 अक्टूबर को इंदिरा ने भुवनेश्वर में अपना वो मशहूर भाषण भी दिया, जिसमें साफ साफ लगता था कि उनको मौत का आभास हो गया है। इंदिरा ने ये भाषण हिंदी में दिया। मैं अपनी आखिरी सांस तक ऐसा करती रहूँगी और जब मैं मरूंगी तो मेरे खून का एक-एक कतरा भारत को मजबूत करने में लगेगा।”
इंदिरा ने कहा था, ‘’ मुझे चिंता नहीं है कि मैं जीवित रहूं या नहीं रहूं। जब तक मेरी सांस में सांस है देश की सेवा करती रहूंगी और अगर मेरी जान जाएगी तो मैं कह सकती हूं कि मेरे खून का एक एक कतरा भारत को मजबूत करने के काम आएगा।‘’ इस भाषण को सुनकर जाना जा सकता है कि इंदिरा गांधी इस भाषण को देते वक्त काफी इमोशनल हो गई थीं। इससे ऐसा भी लगता है कि उन्हें लगातार अपनी जान पर मंडरा रहे खतरे का आभास था और कहीं ना कहीं अवचेतन मस्तिष्क में ये बात उनके घर कर गई थी कि वो अब ज्यादा दिन बचने वाली नहीं।
उनकी एक एक बात में यहां तक कि इस भाषण की एक एक लाइन में वो डर, वो आभास साफ तौर पर महसूस किया जा सकता था। इस भाषण को सुनकर लगता है कि क्या उन्हें वाकई ये अहसास होने लगा था कि ये उनका आखिरी भाषण है? अपने दिल की बात गहराई से उन्होंने संजीदा लफ्जों में बाहर रख दी। ऐसा लगता है कि उन्हें आभास था कि पीढ़ियां इस भाषण को सुनने वाली हैं, तभी उन्होंने ये बात की, अगर मैं मर भी गई तो मेरे खून का एक एक कतरा देश के काम आएगा। इंदिरा का ये आखिरी भाषण उनके कट्टर विरोधियों तक को उनकी राय बदलने को मजबूर कर सकता है।