जानिए कैसी है अजय देवगन की फ़िल्म ‘भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया’
पिछले कुछ सालों में वॉर-ड्रामा फिल्में अक्सर बॉलीवुड में सफल फिल्म होने की गारंटी होती हैं, और उस पर शानदार वीएफएक्स हो तो फिर सोने पर सुहागा! मगर 13 अगस्त को डिज्नी प्लस हॉटस्टार पर रिलीज हुई अजय देवगन की फिल्म ‘भुज: द प्राइड ऑफ इंडिया’ इन दोनों में बीच में कहीं फंस कर रह गई है। यह फिल्म उस विरासत से हो कर गुजरती है, जिसके मेकर्स ने ‘तान्हाजी: द अनसंग वॉरियर’ जैसी शानदार फिल्म बनाई है। यदि आप कोई शानदार डिश बनाना चाहते हैं और उसमें 36 प्रकार के मसालों का इस्तेमाल कर देते हैं, इस आशा में कि यह डिश शानदार बनेगी तो कभी-कभी ऐसी डिश हलक के नीचे नहीं उतरती है। अजय देवगन की इस फिल्म के साथ भी ऐसा ही हुआ।
कहानी
1971 के भारत-पाक युद्ध के दौरान, पाकिस्तान की तरफ से की गई बमबारी में टूट चुके भारतीय वायु सेना के भुज एयरबेस को बहाल करने के लिए 300 स्थानीय महिलाओं ने अपनी जान जोखिम में डाल दी, ताकि पाकिस्तान से होने वाले जमीनी और हवाई हमलों से देश की रक्षा की जा सके। स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्णिक (अजय देवगन) ने स्थानीय महिलाओं को युद्धस्तर पर हवाई पट्टी की मरम्मत में मदद करने के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया। फिल्म भुज के साहसी स्थानीय नागरिकों और भारतीय सशस्त्र बलों के योगदान को याद करती है।
फिल्मांकन
हालांकि, फिल्म की शुरुआत में मेकर्स ने डिस्क्लेमर में साफ कर दिया था कि यह फिल्म सच्ची घटनाओं से प्रेरित फिक्शन है। यह इतिहास को फिर से सिनेमाई सीन्स के जरिए बताने के स्तर पर कई ड्रामेटिक पक्ष से हो कर गुजरती है। तकनीकी पक्षों में फिल्म अपनी कहानी कहने में भटकाव से भी गुजरती है। फ्लैशबैक का इस्तेमाल फिल्म की किस्सागोई के लिए बेहतर तरह से किया जा सकता था, ताकि कहानी का पक्ष दर्शक के जेहेन में बेहतर तरह से आ सके। मगर मौजूदा वक्त का ऑडियंस इस थॉट प्रॉसेस के जरिए फिल्म से जुड़ने की कोशिश कर सकता है, क्योंकि कहते हैं न कि ‘प्यार और युद्ध में सब कुछ जायज है!’
फिल्म भावनात्मक पक्षों को थोपने का काम करती है। वास्तविकता के मुताबिक भुज का एयरबेस बनाना एक खूफिया काम था, जिसे भविष्य में होने वाले पाकिस्तान के हमलों से बचाना था, वहां फिल्म में दिखाए गए ढोल-नगाड़ों के साथ गाए जा रहे जोरदार भजन तर्क से परे लगते हैं। वास्तविकता में इस एयरबेस को बनाने के दौरान भुज की महिलाओं को हरे रंग के कपड़े पहनाए गए थे और पीएएफ विमानों से छिपाने के लिए गाय के गोबर का इस्तेमाल एयरबेस पर किया गया था। फिक्शन के बहाने शुरुआती डिस्क्लेमर दे देने से मेकर्स सच्चाई के स्तर पर वास्तविकता को रखने की जिम्मदेरी से बच नहीं सकते हैं। इस तरह के ड्रामैटिक सीन्स को तार्किकता की कसौटी पर कसना बेहद मुश्किल है। फिल्म की स्क्रिप्ट को तैयार करने के दौरान लेखक को और अधिक विचारशील होना चाहिए था।
तकनीकी पक्ष
वास्तविकता से परे और वीएफक्स के खराब शॉट्स का इस्तेमाल पुराने वक्त के वीडियो गेम्स की तरह लगते हैं। अजय देवगन की पिछली फिल्मों की तरह इस फिल्म में NY VFXWAALA ने वीएफएक्स का जिम्मा उठाया है, मगर वॉर फिल्म के लिए 1 घंटे 53 मिनट की फिल्म की कहानी की तरह वीएफएक्स भी जल्दबाजी में बनाया हुआ लगता है। ‘तान्हाजी द अनसंग वॉरियर’ के रोंगटे खड़े कर देने वाले वीएफएक्स की तरह इस फिल्म से भी उम्मीद की जा रही थी, मगर कम वक्त में सब कुछ दिखाने की उक्ताहट में कुछ छूट जरूर जाता है। हालांकि, फिल्म का बैकग्राउंड स्कोर वीएफएक्स पर बेहतर काम करते हैं। सीन्स का सिनेमाई अनुभव इन्ही बैकग्राउंड स्कोर की बदौलत रोचक लगता है।
कास्ट और एक्टिंग
फिल्म में अजय देवगन, संजय दत्त, सोनाक्षी सिन्हा, शरद केलकर, एमी विर्क और हां नोरा फतेही ने बेहतर एक्टिंग की है। इस फिल्म में ‘तान्हाजी द अनसंग वॉरियर’ की तरह कुछ किरदारों को तरजीह दी गई है, मसलन – अजय देवगन ने ‘तान्हाजी’ और शरद केलकर ने ‘शिवाजी’ का किरदार निभाया था इस फिल्म में भी दोनों कलाकारों के किरदार का रोल अहम था। फिल्में में कैमियो रोल की बात करें तो नवनी परिहार को पूर्व पीएम इंदिरा गांधी के रूप में कास्ट करना, पुराने टीवी सीरीज के इस किरदार को वापस से जिंदा कर देने जैसा लगता है, हां मगर उनके चेहरे पर झुर्रियां पहले से ज्यादा नजर आ रही हैं।
अगर आप अजय देवगन के फैन हैं और 15 अगस्त के मौके पर देशभक्ति से लबरेज कोई फिल्म देखना चाहते हैं तो यह फिल्म आपको पसंद आएगी। बॉलीवुड में 1971 की लड़ाई में भुज की महिलाओं का देश के प्रति योगदान और स्क्वाड्रन लीडर विजय कार्णिक की सूझबूझ को इस फिल्म के जरिए याद किया जा सकता है।
इस फ़िल्म को रोचक बनाने के लिए देशभक्ति पर बनाई गई कईं बॉलीवुड फिल्मों के पुराने मसालों को चुराया गया है, जिन्हें दर्शक कईं बार पर्दे पर देख चुके हैं। हां फ़िल्म में भारतीय जवानों को श्रद्धांजलि अर्पित करती हुई मनोज मुन्तशिर की ‘सिपाही’ कविता एवँ कविता तिवारी की पंक्तियां “जब तक सूरज चंदा चमके तब तक ये हिंदुस्तान रहे..” जरूर भावुक और प्रभावित करती हैं।