‘बत्ती गुल और मीटर चालू’ जैसी फीलिंग कराती है ये फिल्म
मुम्बई/देहरादून। लम्बे समय से उत्तराखण्डवासी जिस फिल्म का इंतजार कर रहे थे वो आखिरकार शुक्रवार को रिलीज हो गई। इस फिल्म को देखने के लिए दर्शक उमड़ पड़े। देहरादून में सिनेमाघर एवं मल्टीप्लेक्स दर्शकों से भरे नजर आये। मगर इस फिल्म को लेकर समीक्षकों का नजरिया कुछ और ही है। टॉयलेट- एक प्रेम कथा में निर्देशक श्री नारायण सिंह ने गांव में शौचालय की शोचनीय स्थिति पर फिल्म बनाई थी। अब उन्होंने बिजली समस्या और बिजली के बढ़े हुए बिलों का मुद्दा ‘बत्ती गुल मीटर चालू’ में उठाया है। इस मुद्दे के साथ उन्होंने प्रेम-त्रिकोण और दोस्ती/दुश्मनी का चिर-परिचित फॉर्मूला भी डाला है। मनोरंजन और सोशल इश्यु का यह मेल इस बार काम नहीं कर पाया है।
टिहरी (उत्तराखंड) में रहने वाले सुशील कुमार उर्फ एसके (शाहिद कपूर), ललिता नौटियाल (श्रद्धा कपूर) और सुंदर मोहन त्रिपाठी (द्वियेंदु शर्मा) बहुत अच्छे दोस्त हैं। एसके एक छोटा-मोटा वकील है। ललिता फैशन डिजाइनर है। सुंदर लोन लेकर प्रिंटिंग प्रेस खोलता है। ललिता को दोनों चाहते हैं। ललिता को दोनों में से एक को चुनना है। दोनों ललिता के साथ एक सप्ताह बारी-बारी से डेटिंग करते हैं और आखिरकार सुंदर को ललिता चुन लेती है। इस बात का एसके को बहुत बुरा लगता है।
सुंदर की प्रिटिंग प्रेस का बिजली का बिल 54 लाख रुपये आ जाता है। वह बिजली विभाग के चक्कर लगाता है, लेकिन कोई हल नहीं निकलता। बिजली काट दी जाती है और इससे उसका नुकसान होने लगता है। वह एसके से मदद मांगता है, लेकिन जला-भुना एसके मदद नहीं करता। इस प्रेम- त्रिकोण का क्या होता है? सुंदर 54 लाख रुपये के बिल से कैसे छुटकारा पाता है? यह फिल्म का सार है।
सिद्धार्थ-गरिमा ने मिलकर यह फिल्म लिखी है। इन लोगों ने पहले मुद्दा सोचा और फिर उस पर कहानी बनाई। कहने को इनके पास ज्यादा कुछ नहीं था, इसलिए प्रेम-त्रिकोण और दोस्ती-दुश्मनी वाला एंगल फिल्म में डाला, जो केवल फिल्म की लंबाई बढ़ाने के काम आता है। फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं जो निहायत ही फालतू हैं और इनका फिल्म से कोई लेना-देना नहीं है।
जैसे फिल्म की शुरुआत में जलते टायर के बीच से निशाने पर तीर लगाने की प्रतियोगिता, जो सिर्फ शाहिद को हीरो के रूप में स्थापित करने के लिए है, लेकिन फिल्म से कोई खास ताल्लुक नहीं रखता। श्रद्धा को देखने आने वाला लड़के का दृश्य, श्रद्धा-शाहिद के बीच विवाद होने के बाद शाहिद से श्रद्धा के मिलने जाने वाला सीन जैसे कई दृश्य हैं जो बेमतलब के हैं।
सुंदर-ललिता-एसके की कहानी बस में एक मुसाफिर दूसरे को सुनाता है। ये भी बीच-बीच में आते रहते हैं। ये ट्रैक निहायत ही उबाऊ है और सिर्फ फिल्म की लंबाई बढ़ाता है।
फिल्म का असल मुद्दा है ‘बिजली प्रदान करने वाली कंपनी का भ्रष्टाचार’, लेकिन यह मुद्दा भी बेहद ही हौले से छुआ गया है। बिजली की मांग और उत्पादन में होने वाले अंतर, बिजली की चोरी, बिजली विभाग के कर्मचारी और उद्योगपति में सांठ-गांठ जैसी कई मुद्दों के बारे में बात ही नहीं की गई।