डिप्रेशन में रोने के लिए कोना ढूंढती थी: दीपिका पादुकोण
मुंबई। दीपिका पादुकोण ने हाल ही में इंटरनेशनल न्यूज वेबसाइट न्यूयॉर्क टाइम्स से बातचीत में अपनी डिप्रेशन की कहानी जनता के बीच लाने की वजह बताई। इस दौरान उन्होंने यह भी बताया कि आखिर कब वे डिप्रेशन में गई थीं और कैसे उन्हें इस बारे में पता चला। दीपिका ने इस बातचीत में यह भी बताया कि डिप्रेशन से जूझते हुए उनका जो समय बीता, वह उनकी जिंदगी का सबसे अच्छा वक्त हो सकता था।
यह तब हुआ, जब मुझे इसकी उम्मीद सबसे कम थी। मैं फूट-फूटकर रोने के लिए कोना ढूंढती थी। एक बार मैं अपनी एक फिल्म के सेट पर थी। हम एक गाने की शूटिंग कर रहे थे और कास्ट की एनर्जी हाई थी। सभी खुश और जश्न के मूड में थे। मेरे चारों ओर कई लोग थे। फिर भी मैं खुद को गुम और अकेली महसूस कर रही थी। मैं ट्रेलर की ओर भागी और खुद को बाथरूम में लॉक कर रोने लगी।
बॉलीवुड एक्ट्रेस होने के नाते मैंने अपने करियर में बिंदास लड़की से खूबसूरत रानी और दुखी विधवा तक कई तरह के रोल किए हैं। लेकिन जिस भूमिका ने मुझे पूरी तरह बदल दिया, वह मुझे असल जिंदगी में अवसाद से संघर्ष करते इंसान के रूप में लेनी पड़ी। अपनी स्थिति को समझने में सक्षम होना, मेरी रिकवरी का पहला महत्वपूर्ण कदम था।
2004 में मैंने इसके लक्षणों का अनुभव शुरू कर दिया था। फरवरी मध्य की बात की है। काफी लंबे कामकाजी दिन के बाद मैं बेहोश हो गई थी। अगले दिन जब मैं जागी तो मेरे अंदर एक खालीपन था और बस रोने का मन कर रहा था।
यह मेरी जिंदगी का सबसे अच्छा दौर हो सकता था। मैंने अपनी चार सबसे यादगार फिल्मों में काम किया था। मेरा परिवार बहुत सपोर्टिव था और मैं एक ऐसे इंसान को डेट कर रही थी, जो आगे चलकर मेरा पति बना। मेरे पास उस तरह से महसूस करने का कोई कारण नहीं था, फिर भी मैं कर रही थी।
मैं पूरे टाइम थकी और उदास महसूस करती थी। अगर कोई मुझे खुश करने के लिए कोई खुशमिजाज गाना बजाता था तो मुझे बेहद खराब फीलिंग आती थी। हर दिन जागना जैसे बहुत बड़ी मशक्कत होती थी। मैं पूरे समय सोना चाहती थी। जब मैं सो जाती थी तो मुझे असलियत का सामना नहीं करना होता था।
कई महीने मैं चुपचाप सहती रही। नहीं जानती थी कि मुझे क्या हो रहा है। मैं इस बात से अनजान थी कि दुनियाभर में 300 मिलियन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन के मुताबिक) से भी ज्यादा लोगों के सामने इसी तरह का चैलेंज है।
फिर मेरे पैरेंट्समुझसे मिलने मुंबई आए। उनके वहां रहने के दौरान मैं बहादुर बनी रही। लेकिन जिस दिन वे वापस जा रहे थे, उस दिन उनके एयरपोर्ट रवाना होने से पहले मैं फूट-फूटकर रो पड़ी। मां ने पूछा- क्या हुआ? मैंने कहा- कुछ नहीं। फिर उन्होंने पूछा काम करने में कोई दिक्कत आ रही है? क्या मेरे और मेरे पार्टनर के बीच सब ठीक है? सभी का जवाब मैं सिर हिलाकर दे रही थी। कुछ देर बाद मां ने कहा- दीपिका, मुझे लगता है कि तुम्हे प्रोफेशनल की मदद लेनी चाहिए।
मनोचिकित्सक के मुताबिक, मैं क्लिनिकल डिप्रेशन में थी। मैं एकदम हताश थी। लेकिन जैसे ही डॉक्टर ने कहा तुम्हे यह हुआ है तो मुझे तुरंत राहत महसूस हुई। अंततः कोई तो समझ पाया कि मैं किस दौर से गुजर रही हूं। नहीं जानती थी कि मैं जो अनुभव कर रही थी, वह सबसे बड़ा संघर्ष था। जैसे ही मेरे पास डायग्नोसिस आया, मेरी रिकवरी शुरू हो गई।
सबसे बड़ी चीज जो मेरे साथ हुई, वह थी कि मैंने स्थिति को स्वीकार कर लिया था। मैं इससे लड़ी नहीं। डॉक्टर ने मुझे दवाएं लिखीं और अपनी लाइफस्टाइल में कुछ बदलाव लाने की सलाह दी। नींद, हैल्दी खाने, व्यायाम और माइंडफुलनेस की प्राथमिकता तय की। इस प्रोसेस ने मुझे इस बात के लिए ज्यादा जागरूक किया कि मैं कौन हूं।
जैसे ही मैं रिकवर हुई, मैंने अपने अनुभव पर विचार किया। आखिर मैं इस बीमारी के बारे में कुछ भी क्यों नहीं जानती थी? क्यों मेरी मां के अलावा किसी और को मुझमें ये लक्षण नहीं दिखे? और क्यों मैंने अपनी भावनाओं को आवाज देबे में इतना हिचकिचा रही थी? इन सभी सवालों ने मुझे अपनी स्थिति जनता के बीच लाने के लिए प्रेरित किया। अगर मेंटल हेल्थ इश्यूज से गुजर रहा कोई इंसान मेरी कहानी पढ़ने के बाद सिर्फ यह महसूस भी करता है कि वह अकेला नहीं है तो यह पर्याप्त है।