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एक ऐसा गांव…जहां गली के कुत्ते हैं करोड़पति

मेहसाणा। बॉलीवुड फ़िल्मों में अक्सर आपने किसानों और ज़मींदारों को तो ख़ूब देखा होगा। रौबदार व्यक्तित्व, बड़ी-बड़ी मूंछें, सफ़ेद पगड़ी और हुक्का ये सब एक ज़मींदार की पहचान होती हैं फ़िल्मों में। लेकिन आज हम आपको ऐसे ज़मींदारों से मिलवाने जा रहे हैं, जो इंसान नहीं हैं, बल्कि कुत्ते हैं। आइए हम आपको बताते हैं इन करोड़़पति जमीनदार कुत्तों के बारे मेंः-

प्राप्त जानकारी के मुताबिक़, गुजरात के मेहसाणा में स्थित पंचोट गांव में आजकल एक ख़ास तरह के ज़मींदार लोगों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। दरअसल, ये ज़मींदार गांव के कुत्ते हैं, जो करोड़पति भी हैं। ये कुत्ते गांव में एक ट्रस्ट के नाम से पड़ी ज़मीन से करोड़ों रुपये कमाते हैं। बात दरअसल ये है कि 10 साल पहले इस इलाके में जब से मेहसाणा बाइपास बना है, इस गांव में की ज़मीन की कीमत आसमान छू रही है। जिसका सबसे बड़ा फ़ायदा गांव के कुत्तों को हुआ है।

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चलिए अब जानते हैं इसके पीछे की पूरी सच्चाई:
गांव में एक ट्रस्ट है जिसका नाम ‘मढ़ नी पती कुतरिया ट्रस्ट’ है। इस ट्रस्ट के पास 21 बीघा जमीन है। पर इस ज़मीन से होने वाली आमदनी का एक-एक पैसा इन कुत्तों के नाम जाता है। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि बाइपास के पास स्थित इस ज़मीन की कीमत करीब 3.5 करोड़ रुपए प्रति बीघा है। ट्रस्ट के पास करीब 70 कुत्ते हैं। इस तरह लगभग हर कुत्ते के हिस्से करीब 1-1 करोड़ रुपए आराम से आ जाते हैं।

‘मढ़ नी पती कुतरिया ट्रस्ट’ के अध्यक्ष छगनभाई पटेल ने बताया- कुत्तों के लिए उनका हिस्सा अलग करने की परंपरा इस गांव में आज से नहीं है, बल्कि गांव की सदियों पुरानी ‘जीवदया’ प्रथा में भी इसका व्याख्यान मिलता है। इसके आगे उन्होंने बताया कि इस परंपरा की शुरुआत अमीर परिवारों द्वारा दान दिए गए ज़मीन के छोटे-छोटे टुकड़ों से उस समय हुई थी, जब ज़मीन की कीमत इतनी ज़्यादा नहीं थी। साथ ही कई मामलों में तो लोगों ने इसलिए ज़मीन दान कर दी, क्योंकि वो उस पर लगने वाला टैक्स नहीं चुका पा रहे थे।’

उन्होंने ये भी बताया कि पटेल किसानों के एक समूह ने इस ज़मीन के रख-रखाव का ज़िम्मा करीब 70-80 साल पहले लिया था। छगनभाई कहते हैं कि करीब 70 साल पहले इस ट्रस्ट के पास ये ज़मीन आई थी। हालांकि, जैसे-जैसे गांव का विकास हुआ और ज़मीन के दाम बढ़े, लोगों ने ज़मीन दान करना बंद कर दिया। फिलहाल जो ज़मीनें दान की गईं, उनके लिए कोई काग़ज़ी कार्रवाई नहीं हुई और आज भी कागज़ों पर ज़मीन के मालिकों का नाम ही दर्ज है।

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‘जमीनों के दाम बढ़ने के बावजूद उनके मालिकों ने कभी वापस आकर अपनी ज़मीन पर दावा नहीं किया, भले ही उनकी आर्थिक स्थिति कैसी भी रही हो। यहां जानवरों के लिए या किसी सामाजिक काम के लिए दान की हुई ज़मीन को वापस लेना बहुत खराब माना जाता है।’ फसल बुवाई के सीज़न से पहले ट्रस्ट के हिस्से के एक प्लॉट की हर साल नीलामी की जाती है। सबसे ज़्यादा बोली लगाने वाले शख़्स को एक साल के लिए जुताई का हक मिल जाता है। नीलामी से मिलने वाली रक़म करीब 1 लाख रुपये के आसपास होती है, जिसे इन 70 कुत्तों की पालन-पोषण में ख़र्च किया जाता है।

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