खानदानी शफाखाना: मामा की दवाई के नाम पर बनाया मामू

मुंबई। फ़िल्म विकी डोनर के बाद से बॉलीवुड के मेकर्स इस भेड़ चाल पर चल पड़े हैं कि ऑडियंस को टैबू टॉपिक वाली फिल्में पसंद आ जाती हैं, लिहाजा ऐसे ही टॉपिक पर फिल्में बनाई जाएं। सुभाष घई की फिल्मों में असिस्टेंट रही शिल्पी दासगुप्ता की फिल्म भी कुछ उसी ढर्रे पर चलती है। फिल्म की वन लाइनर थीम तो दिलचस्प है, पर उसे पर्दे पर उतारने के दौरान यह बहुत उबाऊ, सुस्त, दोहराव से भरी और असरहीन बन गई है।
इस फिल्म के जरिए नामर्दी और गुप्त रोग के ऊपर एक खुली बहस करने की कोशिश की गई है। इसका मकसद छोटे शहरों में भी सेक्स समस्याओं के मसले पर जागरुकता और चर्चा का माहौल बनाना है। इस लिहाज से फिल्मकार और पूरी टीम की नीयत और हिम्मत तारीफ के काबिल है। मगर एक अच्छी कहानी की संरचना और उसके व्याकरण के लिहाज से देखा जाए तो यह फिल्म सतही और बेअसर बन गई है।
कहानी पंजाब के होशियारपुर इलाके पर बेस्ड है। वहां मामाजी गुप्त रोगों के इलाज के लिए खानदानी शिफा खाना नाम से क्लिनिक चलाते हैं। वह वहां के यूनानी पद्धति से ईलाज करने वाले कॉलेज के सदस्य भी हैं। उन्हें अपने जमाने में भी सेक्स समस्याओं पर खुलकर बहस करने का हक परिवार और वर्क प्लेस दोनों जगहों पर मयस्सर नहीं है। इतना भी हक उन्हें हासिल नहीं है कि वह अपनी छोटी पोती के सामने इन सब मुद्दों को समझा सकें।
बहरहाल उनकी मृत्यु के बाद वह क्लीनिक उनकी पोती बॉबी बेदी के नाम हो जाता है। उसे बेचने की इजाजत उसे तभी है, जब वह 6 महीने तक क्लीनिक के नियमित मरीजों का कम से कम दवाइयों से खयाल रखे। पर उस क्लीनिक के आसपास के दुकानदारों और कारोबारियों की नाराजगी बॉबी को झेलनी पड़ती है। यहां तक कि उसकी मां मिसेज बेदी भी उससे नाता तोड़ने पर उतारू हो जाती हैं।
उन सबसे सामना करने में बॉबी को क्लीनिक के बगल के नींबू सोडा बेचने वाले युवक, वकील टागरा और भाई भूषित का बखूबी साथ मिलता है। उस सफर में पेशे से मशहूर रैपर गबरु घटैक भी उसका साथ देता है। वह भी मामाजी का रेगुलर पेशेंट रहा था। मामाजी के चले जाने के बाद बॉबी उसकी बीमारी की दवाइयां देती है।
गुप्तरोग पर खुली बहस के विरोधियों के अपने तर्क हैं। उनका मानना है कि ऐसा कर आज की जनरेशन गलत रास्ते पर जा सकती है। शिल्पीदास गुप्ता ने एक इंटरव्यू में साफ कहा था कि वे कहानी में इन रोगों के मेडिकल ईलाज पर फोकस नहीं कर रहीं। उनका इरादा इस कहानी से गुप्त रोगों पर समाज, परिवार में खुली बहस का माहौल बेहतर करना है। दुर्भाग्य से फिल्म उनकी इस अच्छी नीयत के अनुसार अच्छी नहीं बन पाई है। दरअसल शिल्पी न तो रोचक कैरेक्टर गढ़ पाईं हैं और न दर्शकों को बांधे रख पाई हैं।
लचर राइटिंग का नतीजा यह रहा कि फिल्म कहीं भी दर्शकों को हंसा पाने में नाकाम रही। अक्सर इस तरह के सब्जेक्ट में ह्यूमर बहुत महत्वपूर्ण होता है। अफसोस कि संवाद लेखन और पटकथा दोनों ही मोर्चे पर फिल्म कमजोर नजर आई है। अदाकारी की बात करें तो वरुण शर्मा बॉबी बेदी के भाई भूषित के रोल में हैं। उनके सिर के पीछे की जुल्फें जरा लंबी की गई हैं, पर उनका कैरेक्टर फुकरे वाले चूचा की छवि से बाहर नहीं निकल सका है।
वकील टागरा के रोल में खुद अनुभवी अन्नू कपूर विकी डोनर वाले डॉ. चड्ढा को ही रिपीट करते नजर आते हैं। थोड़ा बहुतकोर्ट रूम ड्रामा उन्होंने जो किया है, वह उनकी ‘जॉली एलएलबी 2’ के वकील के रोल की ही याद दिलाता है। नायिका बॉबी बेदी के रोल में सोनाक्षी सिन्हा सुंदर दिखी हैं। कैरेक्टर के लिए उन्होंने वजन कम किया है, मगर अदाकारी से वे प्रभावित करने में नाकाम रही हैं।
हैरानगी तो वेटरन थिएटर आर्टिस्ट नादिरा बब्बर को देख होती है। उनके किरदार की बॉबी से नाराजगी पूरी फिल्म में चलती है, पर उस नाराजगी को वह चेहरे पर और बॉडी लैंग्वेज में लाने में असफल रही हैं। फिल्म के हीरो नींबू सोडा बेचने वाले युवक का रोल प्रियांश जोरा ने प्ले किया है। बॉबी के साथ उसकी रोमांस की केमिस्ट्री भी खुलकर मिलकर सामने नहीं आई है।
मामाजी की भूमिका में कुलभूषण खरबंदा अपने उसी पुराने अंदाज में नजर आए हैं। हास्यास्पद तो यूनानी दवा रिसर्च के टीम मेंबर लगे हैं। उनके किरदार कहानी में 20 साल का सफर तय करते हैं, पर लुक और आवाज की खनक उनकी जस की तस है। पता नहीं एफटीआईआई की पासआउट शिल्पी दासगुप्ता से यह चूक कैसे हो गई है। अलबत्ता उन्होंने पंजाबी लोगों के मिजाज को सटीक पकडा है। मशहूर रैपर बादशाह फिल्म में गबरु घटैक के किरदार के रंग में रम और जम नहीं सके हैं। यादगार बस फिल्म का पहला गाना बन पाया है। कुल मिलाकर मामा जी की दवाई के नाम पर दर्शक मामू बन जाते हैं।