पर्यावरण के लिए मुफीद है बर्फबारी
देहरादून। पर्यावरणीय बदलावों के बीच उत्तराखंड की सेहत के लिए एक अच्छी खबर है। राज्य में 16 साल बाद में मार्च में स्नोलाइन का दायरा बढ़कर अब 1800 से 2000 मीटर तक आ गया है। राज्य में अमूमन 2500 से 3000 मीटर की ऊंचाई तक बर्फबारी होती है। इस मर्तबा यह निचले क्षेत्रों तक आ गई।
उत्तरकाशी के गींठ क्षेत्र की ही लें तो हफ्तेभर पहले हुई बर्फबारी के बाद वहां के गांवों में अभी भी आधे फुट बर्फ जमा है। विशेषज्ञों के मुताबिक उत्तराखंड में बर्फबारी न सिर्फ यहां के पर्यावरण के लिए मुफीद है, बल्कि इस मर्तबा जलस्रोत रीचार्ज रहने से गर्मियों में पेयजल संकट से भी निजात मिलेगी। मार्च में बर्फबारी होना कोई अचरज भरी बात नहीं है, लेकिन इस बार यह निचले क्षेत्रों तक आई है। सात से 11 मार्च तक की बर्फबारी की ही बात करें तो पहाड़ों की रानी मसूरी में झील, उत्तरकाशी के गींठ क्षेत्र के नौ गांवों समेत अन्य ऐसे स्थानों तक पहुंची, जो 1800 से 2000 मीटर की ऊंचाई पर हैं।
गींठ क्षेत्र की ग्राम पंचायत बीफ के प्रधान चैन सिंह बताते हैं कि क्षेत्र के नौ गांवों में मार्च में पहली मर्तबा ऐसी बर्फबारी हुई कि अभी तक आधा फुट से ज्यादा बर्फ जमा है। वहीं मुक्तेश्वर में भी इस बार ठीकठाक हिमपात हुआ। मौसम विज्ञान केंद्र के निदेशक विक्रम सिंह के अनुसार करीब दो हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित मुक्तेश्वर में वर्ष 2012 व 2014 में भी मार्च में बर्फ गिरी थी, मगर इस बार वहां न सिर्फ अच्छी बर्फबारी हुई बल्कि यह निचले क्षेत्रों तक भी आई।
वह बताते हैं कि मसूरी, उत्तरकाशी, चमोली समेत अन्य क्षेत्रों में भी निचले स्थानों पर भी बर्फ गिरी। कहने का आशय ये कि राज्य गठन के बाद इस बार बर्फबारी का दायरा बढ़ा है और इसने 2000 मीटर से नीचे दस्तक दी है। बर्फबारी का फायदा आने वाले दिनों में देखने को मिलेगा।
वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान, देहरादून के हिमनद विशेषज्ञ डॉ. डीपी डोभाल के मुताबिक मार्च में बर्फबारी होती है, लेकिन इस बार इसका निचले स्तर पर आना उत्तराखंड के पर्यावरण के लिए अच्छा संकेत है। यह ग्लेशियरों की सेहत के लिए भी बेहतर है। आने वाले दिनों में इसके अच्छे नतीजे सामने आएंगे। मसलन, मार्च में अब तक हुई बर्फबारी से इस बार गर्मियों में पेयजल संकट कम रह सकता है।