जानिए कौन थे लेनिन, जिनको लेकर भारत में मचा है बवाल
नई दिल्ली। देश में इन दिनों मूर्तियों को लेकर सियासत तेज हो गई है। जगह-जगह राजनीतिक दलों के कुछ लोगों द्वारा पार्टियों के आदर्श कहे जाने वाले कुछ महापुरूषों की मूर्तियों को तोड़ा जा रहा है। जिसे लेकर देश में हंगामा मचा हुआ है और इन मूर्तियों को लेकर देश के भीतर एक बहस छिड़ गई है। आईए जानते हैं कि आखिर कौन थे लेनिन जिनको लेकर भारत में बवाल मचा हुआ हैः-
त्रिपुरा में भाजपा ने सभी को चौंकाते हुए विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत दर्ज की और वाम दलों का बरसों पुराना क़िला ढह गया। राजधानी अगरतला से लेकर दिल्ली तक, इस जीत की धमक सुनाई दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे विचारधारा की जीत बताया। लेकिन जीत का ये उत्साह और ख़बरें अभी ठंडी भी नहीं हुई थीं कि त्रिपुरा से आए वीडियो और तस्वीरों ने सभी का ध्यान खींच लिया। वीडियो में भाजपा की टोपी पहने कार्यकर्ताओं के बीच एक जेसीबी मशीन लेनिन की एक प्रतिमा को तोड़ने की कोशिश कर रही है।
कुछ ही देर में ये प्रतिमा हार मान जाती है और जेसीबी की कामयाबी के साथ नारेबाज़ी होने लगती है। भाजपा समर्थक सोशल मीडिया पर इस क़दम की तारीफ़ भी करते दिखे। लेकिन दूसरी तरफ़ ऐसे भी लोग थे जो ये कह रहे थे कि इस तरह किसी चुनावी जीत के बाद प्रतिमा को गिराया जाना सही नहीं है। व्लादिमीर इलिच उल्यानोव का जन्म साल 1870 में 22 अप्रैल को वोल्गा नदी के किनारे बसे सिम्ब्रिस्क शहर में हुआ था। पढ़े-लिखे और रईस परिवार में जन्मे व्लादिमीर बाद में दुनिया में लेनिन के नाम से विख्यात हुए।
वो स्कूल में पढ़ाई में अच्छे थे और आगे जाकर उन्होंने क़ानून की पढ़ाई का फ़ैसला किया। यूनिवर्सिटी में वो ‘क्रांतिकारी’ विचारधारा से प्रभावित हुए। बड़े भाई की हत्या का उनकी सोच पर काफ़ी असर पड़ा। ये भाई रिवोल्यूशनरी ग्रुप के सदस्य थे। ‘चरमपंथी’ नीतियों की वजह से उन्हें यूनिवर्सिटी से बाहर निकाल दिया गया लेकिन उन्होंने साल 1891 में बाहरी छात्र के रूप में लॉ डिग्री हासिल की। इसके बाद वो सेंट पीटर्सबर्ग रवाना हो गए और वहां प्रोफ़ेशनल रिवॉल्यूशनरी बन गए। अपने कई समकालीन लोगों की तरह उन्हें गिरफ़्तार कर निर्वासित जीवन बिताने के लिए साइबेरिया भेज दिया गया।
साइबेरिया में उनकी शादी नदेज़्हदा क्रुपस्काया से हुई। साल 1901 में व्लादिमीर इलिच उल्यानोव ने लेनिन नाम अपनाया। इस निर्वासन के बाद उन्होंने क़रीब 15 साल पश्चिमी यूरोप में गुज़ारे जहां वो अंतरराष्ट्रीय रिवॉल्यूशनरी आंदोलन में अहम भूमिका निभाने लगे और रशियन सोशल डेमोक्रेटिक वर्कर्स पार्टी के ‘बॉल्शेविक’ धड़े के नेता बन गए। साल 1917 में पहले विश्व युद्ध के थका हुआ महसूस कर रहे रूस में बदलाव की चाहत जाग रही थी। उस वक़्त जर्मन ने लेनिन की मदद की। उनका अंदाज़ा था कि वो अगर रूस लौटते हैं तो जंग की कोशिशों को कमज़ोर किया जा सकेगा।
लेकिन लेनिन लौटे और उसी प्रॉविजनल सरकार को उखाड़ फेंकने की दिशा में काम करना शुरू किया जो ज़ार साम्राज्य को सत्ता से बेदख़ल करने की कोशिश कर रही थी। लेनिन ने जिसकी शुरुआत की, उसी को बाद में ऑक्टूबर रिवॉल्यूशन के नाम से जाना गया। हालांकि इसे एक तरह से सत्ता परिवर्तन माना गया। इसके बाद तीन साल रूस ने गृह युद्ध का सामना किया।बॉल्शेविक जीते और सारे देश का नियंत्रण हासिल कर लिया। ऐसा भी कहा जाता है कि क्रांति, जंग और भुखमरी के इस दौर में लेनिन ने अपने देशवासियों की दिक्कतों को नज़रअंदाज़ किया और किसी भी तरह के विपक्ष को कुचल दिया।
हालांकि लेनिन कड़ा रुख़ अपनाने के लिए जाने जाते थे, लेकिन वो व्यवहारिक भी थे। जब रूसी अर्थव्यवस्था को सोशलिस्ट मॉडल के हिसाब से बदलने की उनकी कोशिशें थम गईं तो उन्होंने नई आर्थिक नीति का ऐलान किया। इसमें प्राइवेट एंटरप्राइज़ को एक बार फिर इजाज़त दी गई और ये नीति उनकी मौत के कई साल बाद भी जारी रही। साल 1918 में उनकी हत्या की कोशिश की गई जिसमें वो गंभीर रूप से ज़ख़्मी हो गए। इसके बाद उनकी सेहत में गिरावट आई और साल 1922 में हुए स्ट्रोक ने उन्हें काफ़ी परेशानी में डाल दिया। अपने अंतिम समय में वो सत्ता के नौकरशाही का चोला ओढ़ने को लेकर परेशान रहे और जोसफ़ स्टालिन की बढ़ती ताक़त को लेकर उन्होंने चिंता भी जताई। बाद में स्टालिन, लेनिन के उत्तराधिकारी बने।
साल 1924 में 24 जनवरी को लेनिन का निधन हुआ लेकिन उनका अंतिम संस्कार नहीं किया गया। उनके शव को एम्बाम किया गया और वो आज भी मॉस्को के रेड स्कवेयर में रखा है। 20वीं सदी की सबसे महत्वपूर्ण और असरदार शख़्सियतों में गिने जाने वाले लेनिन की मौत के बाद उनकी पर्सनेलिटी ने बड़े तबके पर गहरा असर डाला। साल 1991 में सोवियत संघ के बिखरने तक उनका ख़ासा असर जारी रहा। मार्क्सवाद-लेनिनवाद के साथ उनकी वैचारिक अहमियत काफ़ी रही और अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट मूवमेंट में उनका ख़ास स्थान रहा।
हालांकि, उन्हें काफ़ी विवादित और भेदभाव फैलाने वाला नेता भी माना जाता है। लेनिन को उनके समर्थक समाजवाद और कामकाजी तबके का चैम्पियन मानते हैं, जबकि आलोचक उन्हें ऐसी तानाशाही सत्ता के अगुवा के रूप में याद करते हैं, जो राजनीतिक अत्याचार और बड़े पैमाने पर हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार रहे।
लेनिन की बॉल्शेविक सरकार ने शुरुआत में लेफ़्ट सोशलिस्ट रिवॉल्यूशनरी, चुने गए सोवियत और बहुदलीय संविधान सभा के साथ सत्ता बांटी, लेकिन 1918 आते-आते नए कम्युनिस्ट पार्टी के पास सारी ताक़त आ गई। उनकी सरकार ने ज़मीन ली और उसे किसानों, सरकारी बैंकों और बड़े उद्योगों के बीच बांटा। सेंट्रल पावर के साथ संधि पर दस्तख़त कर उसके पहले विश्व युद्ध से हाथ खींचा। ऐसा कहा जाता है कि लेनिन के राज्य में विरोधियों को रेड टेरर का सामना करना पड़ा।
ये वो हिंसक अभियान था, जो सरकारी सुरक्षा एजेंसियों की तरफ़ से चलाया गया। हज़ारों लोगों को प्रताड़ना दी गई। साल 1917 से 1922 के बीच उनकी सरकार ने रूसी गृह युद्ध में दक्षिणपंथी और वामपंथी बॉल्शेविक-विरोधी सेनाओं को परास्त किया। जंग के बाद जो भुखमरी फैली और निराशा ने जन्म लिया, उससे निपटने के लिए लेनिन ने नई आर्थिक नीतियों के ज़रिए हालात उलटने की कोशिश की।