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एक पत्रकार ऐसा भी, जो 17 सालों से हाथ से लिख रहा है अख़बार

नई दिल्ली। कहते है पत्रकार समाज का दर्पण होते हैं। जो हमारे समाज के बीच घटता है उसे उजागर करते हैं। लोकतंत्र का चैथा स्तम्भ कहे जाने वाली पत्रकारिता में समय के साथ काफी बदलाव आ चुके हैं। आज मीडिया का स्वरूप पूरी तरह से ग्लैमराइज्ड हो चुका है। किन्तु इस बदलते दौर में एक पत्रकार ऐसा भी है जो बिना किसी सजावट और बिना किसी सहारे के निरन्तर ईमादारी से टिककर अपना कर्तव्य निभा रहा है। आइए जानते हैं इस पत्रकार के अखबार निकालने के अलग अंदाज के बारे मेंः-

समाज में बदलाव लाना हर कोई चाहता है, लेकिन जब इसके लिये स्टैंड लेने की बात आती है, तो ज़्यादातर के हाथ-पैर फूलने लगते हैं। वहीं दूसरी तरफ हमारे आस-पास ऐसे भी लोग हैं, जो न सिर्फ़ स्टैंड लेने की हिम्मत दिखाते हैं बल्कि उसे सार्थक भी करते हैं। उन्हीं चंद लोगों में से एक हैं दिनेश, जो पिछले 17 सालों से एक अख़बार चला रहे हैं। दिनेश के अख़बार की ख़ासियत है, उनका उसे हाथ से लिखना और एक हस्तलिखित कॉपी की फ़ोटोकॉपी कर अकेले लोगों तक पहुंचाना। इस काम में उनकी एक मात्र साथी है उनकी साइकिल, जिसकी मदद से वो जगह-जगह जाकर अपना अख़बार चिपकाते हैं।

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मुजफ्फरनगर की गांधी कालोनी और उसके आस-पास फ़ोटोकॉपी किये हुए कुछ अख़बारनुमा कागज़ दीवारों पर चस्पां हुए मिल जाएंगे। इनमें दिनेश देश और समाज से जुड़ी समस्याओं को उठाते हैं और अपनी निर्भीक राय प्रस्तुत करते हैं। उनकी इन ख़बरों में इन सभी समस्याओं का उचित हल भी बताया जाता है। इसकी एक प्रति वो फ़ैक्स के द्वारा संबंधित सीएम और प्रधानमंत्री तक भेजते हैं। दिनेश एक ऐसे पत्रकार हैं, जिनके पास कलम और जज़्बे के अलावा संचार का कोई भी साधन नहीं हैं।

वो रोज़ाना अपने हाथ से किसी एक समस्या पर ख़बरें लिखते हैं और फिर उसकी फ़ोटोकॉपी कर साइकिल पर निकल जाते हैं मुज़फ्फरनगर की गलियों में। इन्हें वो ख़ुद अपने हाथों से पेड़ों, दीवारों, बस स्टॉप पर चिपकाते हैं। दिनेश की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। आजीविका के लिये वो बच्चों को आइसक्रीम और खाने की बाकी चीज़ें बेचते हैं। वो शुरुआत से ही समाज के लिये कुछ करना चाहते थे। उनका सपना था वकालत करने का, लेकिन घर के माली हालात कुछ ठीक न होने के कारण वो सिर्फ 8वीं कक्षा तक ही पढ़ पाए। इसके बाद उन्हें परिवार को सपोर्ट करने के लिये मेहनत मज़दूरी करनी पड़ी।

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मगर समाज में बदलाव लाने के लिये उन्होंने 2001 में हाथ से ही अख़बार लिख कर लोगों तक पहुंचाना शुरू कर दिया। दिनेश को पता है कि उनके इस अख़बार की पहुंच बहुत ही कम लोगों तक है, लेकिन उनका मानना है कि उनकी ख़बरें समाज के लिये उपयोगी हैं और इनसे ज़रूर एक न एक दिन बदलाव आएगा। अगर इसकी वजह से किसी एक भी व्यक्ति का भला हो जाए, तो उनका लिखना सार्थक है।

दिनेश ने भले ही पत्रकारिता की पढ़ाई न कि हो, मगर वो बहुत ही सलीके से आम लोगों की समस्याओं पर प्रकाश डालते हैं। पैसों की कमी होने के बावजूद दिनेश किसी से भी आर्थिक सहायता स्वीकार नहीं करते हैं। अख़बार लिखने के अलावा भी वो कई बार ज़रूरतमंदों की मदद करते नज़र आते हैं। वो ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं, जिसमें किसी तरह का भी क्राइम न हो, किसी तरह की लूट-पाट ने हो, औरतें कभी भी बिना किसी भय के आ जा सकें।

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भारतीय पत्रकारिता की शुरुआत स्वतंत्रता संग्राम से हुई थी। वो जनता के हितों के लिए खड़ी उठ लोकतंत्र का चौथा स्तंभ बनी थी, लेकिन आज जिस पोलाराइजेशन से भारतीय मीडिया जूझ रही है, उसमें दिनेश जैसे पत्रकारों के निष्पक्ष, निःस्वार्थ काम की ज़रूरत है। पत्रकारिता को उन लोगों की ज़रूरत है, जो समाज की सच्चाई को समाज के ही सामने लेकर आ सकें, जो निर्भीक होकर सवाल कर सकें। फ़िलहाल इस काम में दिनेश अकेले ही चल रहे हैं। देखते हैं, कोई उनका साथ देता है या नहीं।
दिनेश की ये कहानी शायद हम तक और आप तक न पहुंचती, अगर अमित धर्म सिंह नाम के फ़ेसबुक यूज़र इसे अपने अकाउंट से शेयर नहीं करते। अब देखना ये है कि दिनेश के इस साहसिक कार्य को बढ़ावा देने के लिये उनकी मदद करने को कोई आता है कि नहीं?

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