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मुख्यमंत्री की कुर्सी हिलाने को बेताब है मदारी गैंग, आखिर कैसा सीएम चाहिए..?

देहरादून। उत्तराखंड राज्य में प्रत्येक मुख्यमंत्री एवँ हर जिले में जिलाधिकारी के कुर्सी पर बैठते ही उसके जाने की चर्चा शुरू हो जाती है। अस्थिरता फैलाने वाला एक खास गैंग पहले ही दिन से ऐसा माहौल तैयार करने में जुट जाता है। ये सवाल आज तक अनसुलझा ही है कि आखिर इस राज्य को कैसा सीएम चाहिए। अस्थिरता फैलाने वालों के निशाने पर सबसे पहले आए राज्य के पहले सीएम नित्यानंद स्वामी। कभी उन्हें बाहरी कहकर माहौल खड़ा किया गया, तो किसी ने उनके आसपास के लोगों को लेकर उनके राजकाज पर सवाल उठाए।

वहीं दूसरे सीएम भगत सिंह कोश्यारी को बहुत ज्यादा मौका नहीं मिल पाया और वो उनकी विदाई चुनाव में हुई पार्टी की हार के बाद स्वयं हो गई। लेकिन इसके बाद आए तमाम मुख्यमंत्रियों को समय मिला जरूर, लेकिन हर शख्स को यहां खारिज कर दिया गया। तो ऐसे में मौजूदा सीएम त्रिवेंद्र रावत कहां इस गैंग विशेष से बच सकते हैं। 18 मार्च 2017 से ही सीएम त्रिवेंद्र के कुर्सी पर बैठते ही पहले छह महीने और बाद में हर छह महीने में सरकार को अस्थिर करने का जो खेल शुरू हुआ है, वो बंद होने का नाम नहीं ले रहा है। विधायकों के अपने निहायत ही व्यक्तिगत कारणों की नाराजगी को सीएम से नाराजगी से बताकर अस्थिरता का माहौल खड़ा किया जा रहा है। सवाल फिर वही हैं कि आखिर इस राज्य को कैसा सीएम चाहिए।

तमाम पूर्व सीएम से हटकर त्रिवेंद्र रावत ने काम संभाला। सबसे पहले जिस सीएम आवास में जाने की हिम्मत कोई नया सीएम नहीं कर पाया, उसी में गृह प्रवेश कर अंधविश्वास को मिटाया। सीएम आवास और सचिवालय से अनावश्यक भीड़ को समाप्त किया। भले ही इसके लिए कई अपने प्रिय, परिचितों की नाराजगी मोल ली हो। अब बिना किसी काम के आवास, ऑफिस में भीड़ नजर नहीं आती। इसे उनके विरोधी उनकी कम लोकप्रियता बताकर दुष्प्रचारित करते हैं। जबकि यही लोग पूर्व सीएम के यहां लगने वाली इसी भीड़ को मच्छी भीड़ करार देते रहे। आज ये भीड़ सचिवालय परिसर तक गायब है। अब अनुभागों और सचिव कार्यालयों में फाइल के पीछे भागते सफेदपोशों और लॉबिस्टों की भीड़ नजर नहीं आती।

अनुभाग से लेकर सचिवालय के हर पटल पर कर्मचारी राहत में हैं। सीएम सचिवालय में आज एक भी ऐसा ओएसडी आपको नजर आता है, जिसके कहने भर से अफसर उसकी बात मान काम कर दे। पूर्व मुख्यमंत्रियों के समय जो जलवा करीबियों का था, आज नहीं है। नौकरशाही में भले ही कुछ अधिकारियों के असर की बात की जाती हो, लेकिन वो तेवर और असर यहां भी नजर नहीं आते। आज हर किसी ओएसडी, सलाहकार, नौकरशाह की एक सीमा है और एक दायरा।

आज डीएम, एसएसपी, डीएफओ, सीएमओ नेताओं की पसंद से नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ सीएम की पसंद से चुने जाते हैं। आज बात-बात पर डीएम, एसएसपी, एसडीएम, तहसीलदार, थाने चौकियों में लोगों का तबादला करवाने वाले अब बेअसर हैं। आज कईं काबिल अफसर राज्य में कलेक्टर हैं। ऐसा सामान्य परिस्थितियों में आप कल्पना कर सकते हैं। पहले जहां एक डीएम केे कार्यकाल को सालभर हो जाता था, तो उसे रिकॉर्ड मानते हुए उनकी विदाई की तैयारी हो जाती थी। आज डीएम को पूछना पड़ रहा है कि साहब हमें वापस बुलाना भूल तो नहीं गए।

जिस तबादला एक्ट को सख्त जनरल बीसी खंडूडी शत प्रतिशत लागू नहीं करा पाए, वो त्रिवेंद्र सरकार में लागू हुआ। इसके आने से तबादला उद्योग चलाने वाले बेरोजगार हैं। इसी बेरोजगारी से मीडिया के उन रसूखदार लोगों को भी जूझना पड़ रहा है, जिनकी एंट्री पिछली सरकारों में चौथे तल से लेकर सीएम आवास में बेडरूम तक थी। आज बेडरूम तो दूर वेटिंग रूम तक ये भीड़ नजर नहीं आती। आप उम्मीद कर सकते हैं कि हर सरकार में हमेशा चौथे तल पर रहने वाला शख्स आज जेल की सलाखों के पीछे हो। यूपी निर्माण निगम अपनी दुकान समेट रहा हो, ब्रिडकुल जैसी राज्य की कार्यदायी संस्था आगे बढ़ रही हो। जल निगम जैसे संस्थान को दिल्ली में उत्तराखंड निवास का 90 करोड़ का काम आवंटित हो। बड़े छोटे निर्माण कार्यों में रिवाइज इस्टीमेट के नाम पर दुकान चलाने वालों के शटर डाउन है।

आज रिवाइज इस्टीमेट तो दूर तय लागत से भी कम में काम हो रहे हैं। डॉटकाली टनल, अजबपुर, मोहकमपुर फ्लाईओवर लागत से भी कम में तैयार हुए। देहरादून और हल्द्वानी के पेयजल संकट को दूर करने को जिस सौंग बांध और जमरानी बांध पर किसी सीएम ने हाथ डालने की हिम्मत न की हो, उस पर काम शुरू करा दिया हो। बल्कि सूर्यधार झील समेत राज्य में कई नई झीलों पर काम शुरू होने के साथ ही खत्म होने की कगार पर है। टिहरी में हर सरकार के गले की फांस बनने वाले डोबरा चांठी पुल का निर्माण पूरा हो चुका है। अटल आयुष्मान जैसी हेल्थ स्कीम को शुरू करा कर जनता को बड़ी राहत पहुंचाई गई। स्वास्थ्य सेक्टर में डॉक्टरों के खाली पदों को बड़ी संख्या में भरवाया। सहकारिता जैसे विभाग, जहां हमेशा घपले घोटाले के ही किस्से मीडिया की सुर्खियां बनते थे, आज वहां 3500 करोड़ की एनसीडीसी परियोजना शुरू कराई। अब दूसरे राज्य भी इसी मॉडल पर काम कर रहे हैं।

देवस्थानम बोर्ड गठन जैसा साहसिक फैसला, जिसे लेने में दिग्गज एनडी तिवारी तक पीछे हट गए थे, उसे तमाम दबावों के बावजूद न सिर्फ लिया, बल्कि लागू कराया। इसके बाद भी अस्थिरता फैलाने वाले बाज नहीं आ रहे हैं। पूर्व मुख्यमंत्रियों की तरह इस बार भी सीएम की कुर्सी हिलाने को मदारी गैंग बेताब है। जबकि मार्च 2017 से लेकर आज तक हुए सभी छोटे बड़े चुनाव में भाजपा ने जीत दर्ज की। अभी तक के कार्यकाल में सरकार के ऊपर किसी घोटाले तक का दाग नहीं है। सरकार के स्तर पर कुछ कमियां भी हैं लेकिन वो ऐसी हैं, जिसका नुकसान राज्य की बजाय सीएम को स्वयं व्यक्तिगत स्तर पर उठाना पड़ रहा है। उनके पास अपनी टीम में वो मजबूत चेहरे नहीं है, जैसे पुराने मुख्यमंत्रियों के पास रहे। हालांकि जो चेहरे हैं, उन पर दाग भी नहीं हैं। नौकरशाही के कुछ धड़े जरूर जरूरत से ज्यादा हावी है। लेकिन भ्रष्टाचार की हिम्मत उनकी भी नहीं है। फिर अंत में सवाल यही है कि अब त्रिवेंद्र भी नहीं, तो आखिर कैसा सीएम चाहिए इस राज्य को।

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