असली चौकीदारों ने सुनाई आपबीती कहा- ’’जानवरों से भी बदतर है हमारा जीवन’’
नई दिल्ली। रात के 8:30 बजे हैं। किशोर जल्दबाजी में अपने टिफिन बॉक्स को अपने बैग में रख रहे हैं क्योंकि अब उनकी ड्यूटी ख़त्म हो गई है। किशोर ग्रेटर नोएडा की एक रेजिडेंट सोसाइटी के गेट नंबर 2 पर दिन भर प्लास्टिक की कुर्सी में बैठे रहते हैं। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि सूरज ढल रहा है या बारिश हो रही है, किशोर वहीं बैठे रहते हैं। अपनी धीमी आवाज़ में किशोर ने बताया “सुबह 8 से शाम 8 की ड्यूटी रहती है। अब कहते हैं आधे घंटे पहले आओ। जब शिफ्ट बदली होती है तो हैंडओवर कर के जाओ और शाम को भी आधे घंटे ज्यादा रुक के जाओ। अगली शिफ्ट वाले गार्ड को हैंडओवर कर के जाओ। बताइए 12 घंटे की जगह अब 13 घंटे रुकना पड़ता है।”
दिल्ली-एनसीआर रेजिडेंट सोसाइटी में काम करने वाले कई निजी सुरक्षा गार्डों के बीच निराशा एक आम बात है। गाजियाबाद में जीएच 7 के एक गार्ड संतोष यादव ने बताया “हमारा जीवन जानवरों से भी बदतर है। बिना कोई साप्ताहिक छुट्टी के 12 घंटे का काम है। कभी-कभी रात की ड्यूटी होती है, कभी-कभी दिन की शिफ्ट होती है। अगर आप आधे घंटे भी देरी से आए तो वे तुरंत पैसा काट लेते हैं।”
यादव और किशोर उन 50 लाख से अधिक सुरक्षाकर्मी में से एक हैं जो वर्तमान में प्राइवेट सिक्योरिटी सर्विस में काम करते हैं। उत्तर प्रदेश में, 1,368 पंजीकृत सुरक्षा एजेंसियां हैं वहीं दिल्ली में 250 से अधिक हैं। एम्प्लॉयर्स और एजेंसियां जो गार्ड की आपूर्ति करती हैं, असहाय नौकरी चाहने वालों का शोषण करने के लिए कानूनी खामियों का उपयोग करती हैं। श्रम कानून विशेषज्ञ रवि सिंघानिया का कहना है कि यह काफी हद तक छोटा और असंगठित क्षेत्र है जो इसे संभाल रहा है।
निजी सुरक्षा एजेंसियां विनियमन अधिनियम 2005 (PSARA) के बावजूद, प्रवेश बाधा कम है और लाइसेंस के नवीकरण में भ्रष्टाचार और सरकारी अक्षमता है। यह एक ऐसी स्थिति है जहां छोटे व्यवसाय, लागत-कटौती के हिस्से के रूप में और कम लागत पर ग्राहकों को सेवाएं प्रदान करने के लिए, श्रम कानूनों का पालन करने से बचते हैं। बड़ी मल्टी नेशनल कंपनियां मुनाफे के लिए ऐसा करते हैं।