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अपने अलग अंदाज के लिए पहचाने जाते थे दून निवासी केएन सिंह

मुंबई। गरजदार आवाज, खास भाव-भंगिमाएं और आंखों को विशेष तरह से ऊपर-नीचे करने का अंदाज। यह पहचान थी गुजरे जमाने के लीजेंड विलेन केएन सिंह की।जेंटलमैन की तरह रहने वाले केएन सिंह ज्यादा चीखे चिल्लाए बिना ही केवल आंखों की हलचल से ही दर्शकों में भय पैदा कर देते थे। खलनायकी को ऐसा मुकाम देने वाले उन्हीं केएन सिंह का आज जन्म दिन है और उनकी यादों को पाठकों से साझा कर रहे हैं बॉलीवुड के दो अन्य लीजेंड खलनायक प्रेम चोपड़ा और रंजीत…

विलेन बनना मतलब काम मिलने की गारंटी 

निर्देशक एआर कारदार का मानना था कि डील डौल के मुताबिक केएन सिंह खलनायक के रोल के लिए परफेक्ट रहेंगे। केएन सिंह इसे लेकर दुविधा में थे, क्योंकि इससे पहले वह कैरेक्टर रोल कर चुके थे। उस समय के चर्चित खलनायक मज़हर खां ने केएन को सलाह दी कि किसी हीरो की दो फिल्में फ्लॉप होने के बाद उसकी मांग घट जाती है। लेकिन खलनायक पर कोई असर नहीं हाेता, उसे हमेशा काम मिलता रहता है। इसके बाद वह खलनायक बनने राजी हो गए।

पृथ्वीराज ने कराई फिल्मों में एंट्री 

केएन सिंह पहले अपनी आजीविका को लेकर बहुत चिंतित थे। वे वकील बनने और फौज में भर्ती होने पर विचार कर रहे थे, पर जब वह अपनी बहन से मिलने कोलकाता गए तो वहां पृथ्वीराज कपूर से उनकी मुलाकात हुई। उन्होंने सलाह दी कि जब तक दूसरा काम तय नहीं होता, तब तक सिनेमा में काम करो। केएन ने इस बारे में कभी सपने में भी नहीं सोचा था। आखिर वे इस बारे में मान गए।

याकूब की दुकान बंद

केएन की रहस्यमयी मुस्कान और आंखों के खास अंदाज ने दर्शकों में केएन का सिक्का जमा दिया। उस समय के प्रसिद्ध खलनायक याकूब केएन की प्रसिद्धि से ऐसे डरे कि उन्होंने मान लिया कि खलनायक के रूप में अब तो यही बंदा चलेगा। इसके बाद याकूब ने कॉमेडियन के रोल करना शुरू कर दिए।

वे कहते थे कि मेहनत करो एक दिन लीजेंड बन जाओगे- प्रेम चोपड़ा

के. एन. सिंह साहब एक वर्जन एक्टर थे, उनका अपना एक अलग ही स्टाइल था। मैं बहुत सौभाग्यशाली हूं कि उनके साथ ‘हिम्मत’, ‘दोस्ताना’, ‘जादू टोना’, ‘पगला कहीं का’, ‘वचन’ आदि कई फिल्मों में काम करने का मौका मिला। उनकी बुजुर्गावस्था के दिनों के समय मेरी एक फिल्म चल रही थी, जिसके डायरेक्टर चाहते थे कि मेरे साथ किसी सीनियर विलेन काे कास्ट करें। तब मैंने उन्हें सुझाव दिया कि क्यों नहीं केएन सिंह साहब को कास्ट कर लेते। फिर किसी के जरिए उन्होंने सिंह साहब से बात की। उनका दो दिन का काम था। वे शूटिंग करने भी आए और हमने दो दिन साथ में काम किया।

वे बड़े पढ़े-लिखे, जहीन और सलीकेदार किस्म के इंसान थे। बहुत अच्छी अंग्रेजी बोलते थे। लोगों के साथ उनका हमेशा बहुत अच्छा व्यवहार होता था। अपने काम को लेकर बहुत परफेक्ट थे। सेट पर कास्ट-क्रू मेंबर सभी उनकी बहुत रिस्पेक्ट करते थे। उन्हें जो भी रोल दिया जाता था, उसमें कभी दखलअंदाजी नहीं करते थे। वे एक कोने में बैठे रहते थे और डायरेक्टर से पूछते थे कि क्या करना है। मैं उनके सामने तो न्यू कमर था, पर मुझे याद है कि वे मेरे काम को बहुत सराहते थे। मुलाकात होने पर वे अक्सर तारीफ में कहते थे कि मेहनत करो, एक दिन तुम लीजेंड बन जाओगे। मैंने उनकी इस सीख पर हमेशा ही अमल करने की कोशिश की।

संबंध सबसे ऊपर:

अपने साथी कलाकारों पृथ्वी राज कपूर, कुंदनलाल सहगल, मजहर खान, जयराज, मोती लाल आदि के केएन का फैमिली वाला रिश्ता था। इन कई साथियों के बच्चे जब बाद में बड़े हुए तो फिल्म मेेकिंग में उतरे। इस नई पीढ़ी ने केएन को अंकल-अंकल बोलकर उनसे कई काम फ्री में करा लिए। उन्होंने कई फिल्में संबंधों के एवज में की और मेहनताना नहीं लिया।

आंंख ऊपर-नीचे करने की उनकी स्टाइल ही अलग थी- रंजीत

उनके साथ मैंने ‘रेशमा और शेरा’ में काम किया था। यह मेरी पहली पिक्चर थी। इस फिल्म में उन्होंने मेरे पिता का रोल निभाया था। यह 40-45 साल पुरानी बात है। मैं उनसे पहले भी मिल चुका था। उनकी अपनी एक इमेज थी। उनका जो भी रोल होता था, बड़ा पॉवरफुल थे। जिसे देखकर लोग डरते थे। उन दिनों तो मदनपुरी, प्राण साहब सभी एक्टर अपनी स्टाइल के लिए पहचाने जाते थे। उनकी भी अपनी एक आंख ऊपर और एक नीचे करने की अलग ही स्टाइल थी। वे अपनी डायलॉग डिलिवरी के लिए भी पहचाने जाते थे। उनका एक अलग ही औरा था, जिसे लोग देखते और नोटिस करते थे। वे इतने बड़े एक्टर थे कि लोग उनकी स्टाइल में बात करते थे।

ऐसा नहीं था कि वे बहुत स्ट्रिक्ट रहते थे। वे सेट पर हंसी-मजाक भी करते थे। ऑन द स्पॉट जोक बनाकर सुनाते थे। एक बार उन्होंने अपना ही किस्सा हमें सुनाया था। बताया कि एक पिक्चर में मैं विलेन था। उसमें जादू से हीरो-हीरोइन चूहा और चुहिया बन जाते हैं। फिर होता यह है कि चुहिया किसी कैरेक्टर के पैंट में घुस जाती है और चूहा मेरे पैंट में घुस जाता है। मैंने डायरेक्टर से पूछा, कि यह क्या है- हमारे पैंट में क्या चूहा ही घुसेड़ दोगे। इस ह्यूमरस किस्से को उन्होंने जिस फनी अंदाज में सुनाया, उसे सुनकर हम सब पेट पकड़कर हंसते रहे।

हमारी फिल्म लाइन में जब हम साथ में काम करते हैं, तब परिवार जैसा रिश्ता हो जाता है। हम उनके आगे न्यूकमर थे, पर वे जब भी मिलते थे, बड़े प्यार से बात करते थे। उनकी यही बात सबसे अच्छी लगती थी। वे चेम्बूर में रहते थे। उनके घर के पास ही आरके स्टूडियो में शूटिंग होती थी। रास्ते में उनका घर पड़ता था। एक-दो बार उनके बुलाने पर मैं उनके घर भी गया था। वे बड़े जहीन और बड़े पढ़े-लिखे आदमी थे। मैं उन्हें अंकल बुलाता था।

देहरादून में हुआ था जन्म

केएन सिंह का पूरा नाम कृष्ण निरंजन सिंह था। उनका जन्म 1 सितंबर 1908 में ब्रिटिश काल में देहरादून के डालनवाला में हुआ था। उनकी पहली फिल्म ‘सुनहरा संसार’ (1936) थी। जबकि आखिरी फिल्म अजूबा (1991) थी। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी में 250  फिल्में की। केएन सिंह की पहली फिल्म से उन्हें 300 रुपये की कमाई हुई थी। 92  साल की आयु में साल (जनवरी 2000) में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया था।

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